Feb 25, 2014

सुना है....

सुना है वो,
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चाँद से मुखातिब हैं....
चांदनी के नूर में
अल्फाजों के रेले सजा रही हैं..  
नूर-ए-चट्टान पर
इक हर्फ़, अल्फाजों के,
हमारे भी है...

सुना है वो,
गुलाबों से मुखातिब हैं
पंखुडी गुलाब से
दास्तान-ए-इश्क समझ रही हैं
टूटे उन पंखुड़ियों में
एक पत्र गुलाब के
हमारे भी है....  

सुना है वो,
तकदीर से मुखातिब हैं
हाथों के लकीरों से
नए रिश्तें समझ रही हैं
      लकीर-ए-तकदीर में
      एहसासों के कुछ पल
      हमारे भी है

सुना है वो
शब्दों से मुखातिब हैं
कोरे पन्नों पर  
शब्दों के छंद बना रही हैं
फेंके फटे पन्नों में खुरचे
चाहत के कुछ पत्र
हमारे भी हैं...




  

Feb 24, 2014

चिविंग गम....

होंठों से छू तुम्हे
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पल कुछ पल
खुद से की रूबरू  
थोडी तुम हिली  
थोडी तुम लहरायी  
तुम्हारी खुशबू
साँसों में समा गयी
तुम्हारी मिठास
आत्मविभोर कर गयी
तुम अस्तित्व खो अपनी
हमारी चाहत बन गयी.
साँसों के बूते से धकेला
गुब्बारों सी
जहाँ में छा गयी
जब तक सकी, संभली
न हो सका तो फूट
पुनः आकर में आ गयी

विधि का विधान.....
हुई मिठास कुछ धूमिल
खुशबू हुई कुछ और धूमिल
फेंक गया वही मन जो
कुछ पल पहले ही
हुआ आत्मविभोर था..
फेंक गया वही तन जो
मिठास से तेरे
प्रफुल्लित था.... .
कैसा है ये विधान
कैसा है ये जीवन
एक चिविंग गम का?
पूछा मैंने गम से...

मुस्कुरा गम ने कहा
हंस क्यों रहे हो
आश्चर्य क्यों हो रहे
विधि के इस विधान पर...
हम तो क्या?
हम में और प्रेम में भी  
प्रेम,
वही प्रेम के हुंकार
जिसे ज़िन्दगी भर भरते हो
हम में भी मेल है, जो
न देख पाए तुम कभी
लो
बाध लो ये गूढ़ मंत्र :

है जब तक खुशबू
है जब तक मिठास
है जब तक आगाज़
है जब तक धेय्य
हैं हम कमली ...
वर्ना हम राह के मली ....

चिविंग गम को थूक कर जन्मा ये फलसफा.....हैं न यथार्थ .....

Feb 22, 2014

चुप्पी....

आशा के विपरीत
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जन्म पर
नन्हे शिशु ने जब
सिकुड़ी हुई भौये
बाबा के आँखों में देखी थी
बिलखना छोड़
चुप्पी की चादर मैंने ओढ़ ली थी

भैया को
माँ के स्नेहांचल में छुप
माँ से लोरियां सुनते देखा
माँ को मुझे अलग कर
थपकियों से भैया को सुलाते देखा
थपकियों की आवाज़ की
आस छोड़
चुप्पी की चादर मैंने ओढ़ ली थी

खेल के मैंदान में
मित्रों के नोकझोंक में
खुद को कभी हारते
तो कभी जीतते देखा.
बाबा के थप्पड़ों ने
अपने हर जीत को हारते देखा
न्याय और अन्याय के द्वन्द को
आदर के बसते में छोड़
चुप्पी की चादर मैंने ओढ़ ली थी

उतार चढाव के ज़िन्दगी में
अपनों के हर उलझन में
अपनों से आगे खुद को
अगन में झोंका...
उनके हर अन्याय पर
मूक बधिर हो
उनके आंसुवो के खातिर
रक्त के घूंट खुद पिए
विवादों को विवाद में छोड़,
चुप्पी की चादर मैंने ओढ़ ली थी

चुप्पी के चादर ओढ़ने की
जिद जब खुद की थी,
तो फिर क्यूँ हूँ अब मैं,
विवादों में घिरा
तो फिर क्यूँ हूँ अब मैं,
कफ़ा, प्रश्नों से घिरा
तो फिर क्यूँ कर रहा हूँ मैं,
उम्मेद औरों से..
तो फिर क्यूँ कर रहा हूँ,
खोने पाने की हिसाब आज मैं
क्यूँ?

बस,
अब बहुत हुआ
ना पकडूँगा अब और मैं
किसी और के आशा का दामन
किसी और के उम्मीदों का आँचल
अंतिम कुछ लम्हों को
ज़िन्दगी के नाम
नए आयाम में ढाप
अब निकल पड़ा हूँ मैं,  
चुप्पी के चादरों को फेंक ....
अपनी ज़िन्दगी की खोज में ....

    

Feb 20, 2014

ना, मै टूटी नहीं हूँ...

गर्म चाय की प्याली ले
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आज जब बालकनी पर आया
बड़े गमले की मिट्टियों में
उग रही मनीप्लांट पर
नज़र पड़ी....

हाँ, ये वही बालकनी है
जहाँ बैठ हम दोनों, यानि
हम और तुम, हमारी ज़िन्दगी
चाँद के मीठे रस में भीगते
शाम को रात्रि के हवाले कर आते

न जाने कहाँ कहाँ से
प्रसंग का जन्म होता..
चाय की चुस्कियों में
हाथों के लकीरों को टकराते
प्रसंग, शब्दों में ढलते और
शब्द, कहानियों और लम्हों में ढल जाते...

हाँ, ये वही बालकनी है
सफ़ेद रंग के दीवारों से
तीनों तरफ हमे घेरे
नीले आकाश को अधीयारे में बदलते
चाँद और सितारों के घूँघट में
मीठी हवाओ में हमे झंझोरते.

सफ़ेद उस दिवार की कई परतें
अब कथाओं के पन्नों सी
खुरच आयी थी..

दिवार पर
आंसू के कई बूंदें गिरे थे
शुष्क, उस दिवार के भाग पर
काई के कई फफूंदों ने
घर कर लिया था.

जीरो वाट की वो तुम्हारी पसंदीदा
नीली बल्ब पर
कबूतरों ने गंद फैला दिया है ... 

हाँ, ये वही बालकनी है,
आंधी के झोंको ने दुनिया भर की  
मिटटी बरामदे में भर दी थी..
जिस गद्दे को दिवार से सटा
हम आखरी बार बैठे थे उन पर भी,
लम्हों के धुल का परत पड गया है..  

तुम्हारे जाने के बाद
हम कभी बालकनी नहीं आये थे.


गमले का एक किनारा टूट भी गया था
जिससे मिटटी के कई ढेले
लावारिस से,
बाहर पड़े थे
मिट्ठी के ढेले को छेद कर
मनीप्लांट ने कई जड़ उगा लिए थे

पास गया, तो देखा
मनीप्लांट का वो शाख,
नीचे गिरा हुआ था
झुक आया था
तुमने उन्हें बड़े प्यार से
बांस से बाँध खड़ा किया था..

याद हैं न, शाख की एक डाल,
जो कहीं से तुम लायी थी
मिटटी के इसी गमले में
मैंने रोप दिया था  
पांच वर्षो में बहुत बढ़ आई है


अब डालों से निकल
कई सारे जड़
प्रेम के प्रतीक हो जैसे,  
मन मिटटी में उग आये हैं.

अद्भुत रिश्ता बन गया था
हम, तुम और मनीप्लांट,
तुम हंसती तो,  हम हँसते,
हम खुश होते, तो ये भी खुश रहती,
तुम उदास होती,
हमारी जान निकल आती   

शाख के पत्तों को छुवा तो,
जुबान से आवाज़ आई
टूट गयी है .......
 
सुन कर मेरी फुसफुसाहट
मनीप्लांट से आवाज़ आई
ना...
ना... मैं टूटी नहीं हूँ..
उम्र के अनुभव से
ठूंठ को मजबूत रखा है,

उनसे मिली प्यार की गर्माहट से
हमने सोंधी मिटटी को
आसुवों के बूंदों से सींच
कई लम्हों को जन्माये
अपने जड़ उगाये हैं

उनके यादों, उनके लम्हों ने
जीने की सबब सिखलाया है
सशक्त हो हमे फिर एक बार
खड़ा होना सिखाया है

हम जो आज झुके हैं
धरा के करीब दिखे हैं
फिर नभ को छू पाने को
अपने को धरा तक लाये हैं ....
सशक्त,
निर्भीक,
उन्मुक्त हो उठ आयेंगे
ना...
ना,  मै टूटी नहीं हूँ
मैं झुकी हूँ, नभ तक एक बार फिर उठने के लिए.....