Apr 22, 2012

पुरस्कार.. Awards...My Blog and Me

लिखना
कभी मेरी चाहत न थी..
कोशिश की भी
 जुर्रत न थी शब्दों के कुछ फेर कों
यूं कोई सराह गया
कि  लिखना
अब हमारी लत सी बन गयी...

सच पूछिए कभी कुछ लिखने की कोशिश ही नही की थी हमने. हाँ लिखने के कुछ शौक थे. स्कूल के दिनों में पेन-फ्रेंड्स बनाना, कुछ अपनी बातें करना और कुछ उनकी समझना. ज्यादा बातें होती थी कुछ अपने बारे में, कुछ उनके बारे में, कुछ शहर के बाते. बस लिखना इतने तक ही सिमित था. हाँ, हिंदी के मास्टर जी हमे बहुत पसंद करते थे. क्यूंकि मैं उन्ही की तरह था कुछ कुछ. वो सीधे तरीके से उत्तर देना और लेना दोनों नहीं पसंद करते. याद है एक बार ‘निराला’ साहब की एक कविता थी “वो तोडती पत्थर”. बड़ी सुन्दर कविता थी उसके बारे में किसी भी पाठक की भाव की गुन्जायिश कहाँ रहती थी. “निराला” साहब ने इतने सुन्दर ढंग से संजोया था. हम तों हम थे और मास्टर जी मास्टर जी. उन्होंने व्याख्यान लिखने कों दे डाला छमाही में. अंत में लिखा था उत्तर फुरसत से. जब परिणाम आया, उन्होंने पढ़ कर सुना डाला पुरे क्लास कों.. गदगद हों उठे थे शायद. उस वक्त भी ऐसा लगा की इतने घुमावदार भूमिका बाँधी है.. उन्हें मजा आ गया... क्लास के अंत में मजाक का मसाला मिल गया था..खुबे हँसे थे...

हमारे लिए लिखना एक ही बार पागलपन सा हुआ था जब अपने गर्ल-फ्रेंड कों पटाने की कोशिश में कुछ लिखता... प्रेम-पत्र “वेल्कम  टू सज्जनपुर” (हिंदी सिनेमा) के “महादेव (एस तलपडे) सी होती, बड़ी मादकता होती थी पत्रों में. पर विधि की विधान, प्रेम पत्र पढ़ कर पट तों गयी पर बाद में निरोत्शाहित कर डाला “कितने बड़े बड़े पत्र लिखते हों...कहाँ से चुराते हों..” वगैरह वगैरह ... यूं कहिये ‘जिसके लिए चोरी की वही  कहे चोर’ ..खैर प्रेम-पत्र का गयी पानी लेने. नौकरी के चक्कर में ऐसा फंसा की लिखने के नाम पर मेमो और क्लाईंट कों बिजनेस लेटर ही बच गयी...

कहते हैं जिंदगी एक घूमता पहिया है..चीजें लौट कर आती हैं..जिन से मुलाकात हुई. बहुत अच्छा लिखती है, और लिखने का एक ख्वाब भी सजा रखी है. पर सिर्फ अपने लिए लिखती  है.. उन्हें चिढाने के लिए अपने उलूल जुलूल शब्दों में व्यक्त करना शुरू किया..सयाने बनने लोग पकडे ही जाते हैं. सो पकड़ा गया... और उसकाते रही की मैं कुछ लिखू... कोशिश तों करू... और कोशिश कर रहा हूँ..
कोशिश कर रहा हूँ की कैसे भी उसके बराबरी का लिख पावू.. उस जैसे कविता कर पावू.. करीब तक नहीं पहुँच पाता..





Apr 19, 2012

फटफटिया

रास्ते से उठते शोर सुना तों बस यूं लगा कि ना लिख पाने कि शून्यता अचानक ही समाप्त हों गयी, उंगलियों की हरकते प्रारंभ हों गयी. हाँ भई कुछ मिला था चौपाल पर, जो यादों के झुरमुटों से निकल कर शब्दों में ढल पन्नों में उतर जाने कों व्याकुल थी. गर्मियों की छुट्टियों में आसाम के जंगल और वादियों से निकल हम सपरिवार, अपने गाँव चले आते थे. मेरे बाबा कों जितना शुकुन वहाँ मिलता अपनों के बीच, हमे उतना ही आनंद. एक तों पढाई से छुट्टी, ऊपर से शैतानों के मंडली में शहरी बन कर शेख बधारने का गुरूर. दालान पर छुप कर सारी शैतानियों कों सजाने का  आनंद और ऊपर से निक्कर पहन कर जेठ दुपहरिया में नंगे-बदन बदमाशी की आजादी. शहर में रह ऐसा रूप कहाँ धर पाते. बाबा जितने सख्थ थे, गाँव पहुँच कर उतने ही नम्र हों जाते. सो आनंद ही आनंद मिलता गाँव जा कर. गाँव के चौपाल पर जमींदार दद्दू के बेटे लोहवा जमींदार चाचा का आना जाना हम बच्चों कों बहुत आनंद देता. लोहवा चाचा कों गाँव के सबलोग बहुत पसंद करते. छह फुट से ऊपर ही होंगे शायद, गोरा रंग, डील-डौल बदन, पहलवानी का शौक जो था. उस ज़माने में चाचा कलफ में मंझे सफ़ेद कुर्ते और पेंट पहन, बड़े आकर्षक दिखते. लंबे घुंघराले बाल और कड़क मुछ, देखते ही सब पर छा जाते. पर हमे उनके व्यक्तित्व से ज्यादा पसंद उनके बुलेट मोटर साईकिल प्रभावित करती. जितना रुबाब उनके व्यक्तित्व का था उतना ही मोटर साईकिल का. निकलते चलाते हुए तो ,मोटर साईकिल की फट-फट की आवाज़ से गाँव गूंज उठता. अब पुरे गाँव में एक ही तों मोटर साईकिल थी. उन दिनों बुलेट खरीद पाना संपन्न परिवार ही कर पाते.  बुलेट के आवाज़ भी बड़ी करारी थी.  जहाँ लोगों ने फट- फट की आवाज़ सुनी, मुंह से निकल पड़ती.. “फटफटिया जी कहाँ चल दिए सबेरे सबेरे?”  गाँव वाले नाम ही बदल डाले थे लोहवा चाचा का. अब अंगरेजी में बुलेट या मोटर साईकिल कहाँ कोंई कह पाता. काम रोक कर एक पल उन्हें देख ही लेते और ठंडी आह भी ले लेते.. आखिर हर किसी का एक सपना तों होता ही हैं ना. हमे क्या, हमे तों लोहवा चाचा के आने का इन्तेज़ार रहता. दिखे नहीं कि उनके पीछे सारा मंडली दौड पड़ती सब खेल छोड़-छाड कर. एक साथ चिल्लाना शरू “फटफटिया चाचा आ गये, फटफटिया चाचा आ गये”. खाली पैर उनके पीछे दौडना, पत्थर हों या ईट. क्या फर्क पड़ता है? चाचा जो आये हैं. बड़ा स्नेह रखते थे चाचा बच्चों से. दो-दो तीन-तीन शैतानों कों एक साथ फटफटिया में पीछे बिठाते, एक आगे पेट्रोल टंकी पर, बस लाद लेते और हर बच्चे कों थोड़े थोड़े देर घुमा लाते. हम तों हम थे, थोड़े शर्माते, थोड़े शहरी तहजीब दिखाते, हम अलग ही रह जाते. चाचा अलग से हमे ले जाते. अलग भाव भी था हमारा.. आखिर बीएससी का बेटा जो था. हाँ भई, बीएससी का बेटा. मेरे बाबा गाँव के पहले थे जिन्होंने मेट्रिक से बीएससी तक सफर पहली बार पार किया था पुरे गाँव में. तों एक इज्जत थी उनकी पढ़े लिखे होने का और बीएसी कह्लाने में रुतबा अलग से था. लोहवा चाचा हमे अकेले ले जाते, जाते वक्त माँ कों आवाज़ लगा जाते, “भौजी, शहरिया के तनी गाँव देखा लावत हईं”. फिर क्या था अपनी ऐश चालू...

Apr 12, 2012

दीया

कल रात कों चौपाल पर आया तों देखा मजलिश सजी हुई थी.. हंसी ठट्ठे से माहौल गमगामाया हुआ
था. हम भी जम गए. बड़े दिनों बाद अपने कार्यकर्म से थोड़ी फुरसत मिली थी. कभी देश पर बातें शुरू होती तों कभी कल ही आई सुनामी पर. सब अपने अपने विचार दे रहे थे. हंसी माहौल से जी हलका हों चला था. जब भी मन भारी हों उठता, तों मैं चला आता था चौपाल..दो-तीन चुहल बाजी कर  लेता तों मन हल्का हों उठता. मुनवा भी वहीँ था, सर पर अब भी काला गोगल लगाये, गले में लाल लाल स्कार्फ बांधे, काजल लगाये ससुरा एक दम बन कर घुमते रहता. एक आँख नहीं सुहाता हमे. मोटरसाईकल पर तों ऐसे लदा रहता की लगता है कर्ण कों जन्म से कवच कुंडल मिली थी और मूनवा कों मोटर साइकल. ना उमर का कोई लिहाज करता ना ही ओहदों का. एक नंबर कर मवालि था ..जैसा दीखता है वैसा ही करता है... जिसे तीसे छेड़ते रहता. हंसी मजाक में कह ही गया -”का आशु भैया, सुने हैं कि कोई पूछ रहा है आजकल आपसे कि हम दिया किस लिए जलाते है? का जवाब दिए हैं भईया.” अब इसे कैसे पता चल गया था इस बारे में, सोचने लगा. दरअसल एक चिटठा है हमारा, तिनिमिनी-फ्रेम्स, ब्लोगस्पोट पर. उसी के उद्घाटन पर हमारी खुद खीची हुई प्यारी तस्वीर है एक दिया की. उसी पर किसी आगंतुक ने वो सवाल पूछा था. हमने कोई जवाब तों नहीं दिया.. सोच रहे थे क्या जवाब दे.. पर ये मूनवा मवाली कों कहाँ से पता चल गया नहीं समझ आया. हम हंस कर कुछ कहे नहीं, पर समा तो छेड़ छाड का था, सो सब पीछे पड़ गए.. “का आशु बाबू बात का है, बड़े सवाल पूछे जा रहे हैं?”.

Apr 5, 2012

आखरी शब्द

कई दिनों बाद चौपाल आया था, दिनकर साहब के उगने से पहले. हाँ, ददुआ चाचा की पहली चाय और सवा रुपये की बोहनी ज्यादातर मेरे से ही हुआ करती थी. चाचा की पहली चाय सवा रुपये की ही होती है और उसके बाद लंबी टंगी हुई कार्ड के अनुसार जिसमे अदरख के चाय, इलायची चाय, नीबू चाय...एक के बाद एक चायों की किस्मे मिलती. अच्छी चलती है उनकी दूकान. ददुआ चाचा की चाय की चुस्कियों से दिन की शुरुआत करने की अलग लुत्फ़ होती है खास कर अदरक की चाय बहुत ही स्फूर्ति दे जाती है. अदरख की चाय की आज तलब भी बड़ी लगी थी. रात भर नींद नहीं आई थी हमें. और, ऊपर से बड़ी दिनों बाद आया भी था. शायद आपको भी लगा हों की वो लंबे लंबे चिठ्ठे नज़र नहीं आ रहे. हाँ कुछ लोगों ने तों गहरी सांस ले कर कहा भी होगा चलो कुछ दिन की फुर्सत तों मिली.. अब हर कोई कहाँ इतने लंबे छिट्ठे पढना भी चाहता है और तों और कोई लेखक लिखता तों कोई बात थी, इस अदना से टूट-पुन्जिये कों कौन पढ़े. पर सत्य तों यही है कि हम तों बस दिमाग में उथल पुथल हों रहे विचारों कों अपने प्लेटफोर्म पर ले आते हैं जिन्हें चौपाल बना रखा है. और उन्ही विचारों कों शब्दों में बसा कर एक चिठ्ठे में डाल कर रख लेते हैं.
खैर, बहुत दिनों बाद आया था.  अब शायद आप भी पूछ ही बैठे कि “का हुआ आशुतोष बाबू बड़े दिनों बाद नज़र आये चौपाल पर?” हुआ ये कि बिन चौपाल पर आये तों मन नहीं मानता, पर इन दिनों zin आई हुई थी. अब जिन आये और मैं मसरूफ ना हूँ थोड़ी बात हजम नहीं होती. लगा तों यही था कि शायद मेरे कभी बुलाने पर भी वो ना आए मिलना तों दूर कि बात. पर वो आई.. कुछ पल हमने साथ गुज़ारे.. फिर वही बातें, वही शब्दों के साथ छेड़ छाड, कुछ बीते पलों की यादें और कुछ अनकहे अरमानों के सिलसिले. हम जब भी मिलते है कुछ ऐसा ही हों जाता है .. कब उदास रातें इतनी खुशगवार हों जाती है, कब रात आती है और कब चली जाती पता ही नहीं चलता. कई कई बार तों रात भर जगे रहते, घंटे दो घंटे की नींद होती और फिर निकल पड़ते रोजी-रोटी के चक्कर में. कुछ दिन थी अच्छी गुजरी  एक एक पल.