Feb 26, 2012

मोल

अपनों के मंडी में
समय के सिकडों से
बंधा
लहूलुहान
त्रस्त
निरस्त
बेचैन मैं,
और खुद कों
रिश्तों में बेचता मैं.

ना कोई सौदा हुआ
ना कोई मोल लगा
रिश्तों से भरे
सौदागरों में
खुद कों कहीं भी
ना बेच सका.


27/2/12....

1 comment:

लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.