Jan 15, 2012

क्या हैं डोर, पतंग और मांझा ?

झरझर थरथर
उडी उडी
कभी यहाँ गयी
कभी वहाँ उडी
कभी लटक झटक
कभी मटक मटक
यूँ थिरक थिरक
कभी नभ को उडी
कभी धरा गिरी
कहीं लाल लाल
कहीं नील नील
कहीं पान से
कही पूछ से
तू सजी सजी
झरझर थरथर
उडी उडी

उड़े तू साथ
धागे के संग
मचल मचल
तू उड़ती है
थिरक थिरक...
फिरकी से कभी
ढील ढील
कभी लपट लपट
तू फ़िरक फ़िरक
जीवन रस पीती
जी जाती है तू
थिरक थिरक...
तू पतंग नहीं
कागज का एक
रंग समझाती
तू जीवन का...
 
समझ सके ना
तुझको कोई
तों पूछे
क्या डोर है ?
क्या पतंग और
क्या हैं डोर और मांझा ?

एक बार मैंने भी
बाँधा खुद को
एक पतंग से
जीवन फिरकी ने
खूब खेल किया  
कभी ढील दिया
कभी कसा कसा
खूब उडी वो
खूब लड़ी वो
ढील मिली तों
और उडी वो
और उडी तों
मचल गयी वो
मचल मचल वो
फिसल गयी वो
ना लपेट सका मैं
ना फिरकी से
फिर संभल सका

काबू की हर कोशिश मे
खुद ही खुद से उलझ गया
खुद की मांझे की तेज़ी से मै
खुद को खुद से काट गया
लहूलुहान हुए तन मेरे
लहू भर आये मन मेरे
देख रक्तरंजित मुझको,
फिर भी
थिरकना उसका कम ना हुआ
स्वछन्द किया था जिसको हमने
पराधीन मैं वशित उसका हुआ  

रक्तरंजित
भ्रमित
बेजान
उलझा
थका मैं
फिरकी से फिर प्रश्न किया
क्या डोर है ?
क्या पतंग है?
क्या है डोर और माँझा?
निःशब्द रहा वो
निरुत्तर सा
उलझा मुझे
तकता रहा ..
ना कहा वो
क्या डोर है ?
क्या पतंग हैं?
क्या है डोर और माँझा?


सहसा
नभ से
एक पतंग
मुझ से
आ लिपट गयी
उलझे उलझे सुतों पर
चुम्बन से सहला गयी,   
काट उलझे सूत को मेरे
नए शीरे से
खुद को बाँध गयी.
फिरकी ने भी
साथ निभाई
धीरे से हमे
नभ चुमायी
खुश हों हमे फिरकी ने
हमे खूब सजाई

खूब हँसे हम
खूब सजे हम
खूब नभ पे साथ
थिरके हम
कभी थिरक थिरक
कभी लचक लचक
कभी ढील ढील
कभी कसी कसी
कभी नील नभ में
कभी मेघ में
कभी पत्तों से
तों कभी पेड़ों पे
खेलते रहे हम संग संग

हर पल हम थे
साथ साथ
खुश थे हम वो
साथ साथ
पाया एक नवरिश्ता
साथ साथ
सूत पतंग थे
साथ साथ
फिरकी खुश थी  
साथ साथ

ठीठर गए हम
संभल गए हम
सहसा सब कुछ
भूल गए हम.
खोये थे जब हम
प्रेम प्रणय मे,   
पेंच लगायी हमसे
कई सुतों ने  
था धावा हमपर
कई सुतों की.
लड़ता रहा उसे
ले संग संग ...
मांझे के तेज धार से  
कस्सम कस के
दांव पेच से
काट गए फिर
वो इक बार ....
भूल गया था
जिस पतंग को
उसने ही फेंकी
फिर दांवपेंच.


लहरा गयी
छूट गयी
छोड़ साथ
पतंग मेरी
आसमान में
दूर लहरा गयी..
रोक सका ना
संभाल सका मै
कटी पतंग को
फिर ना पा सका मै

एक बार फिर
उलझा सा
रक्तरंजित
लहूलुहान
पड़ा रहा मै
फिरकी के संग...
मन में प्रश्न लिए
क्या डोर है ? क्या पतंग है?
क्या हैं डोर की मांझा?

फिरकी ने फिर
एक सांस में
व्यथा को मेरे
हल किया
पतंग है
ख्वाब तुम्हारे
स्वतंत्र
अडिग
स्वच्छंदता का निशाँ...
डोर है ताकत,  ख्वाबों को पाने का ..
माँझा तों तीक्ष्णता है, औरों को
ध्वशित कर पाने का...
यही मोल है उड़ती पतंग का
यही भाव है डोर मांझे का ..

पर,
रोक ना अब तू
रुदन में ना कर व्यर्थ समय तू  
उलझे में ना उलझ और अब तू
उठ, खुद को मांझे में मांझ अब तू  ...
काटी है जिसने पतंग को तेरी
प्रतिशोध लेने का कर आह्वान अब तू
वो पतंग नहीं ख्वाब है तेरी
स्वछन्द स्वतंत्र जीवन का लक्ष्य है तेरी
कर आह्वान अब तू, कर लक्ष्य जीवन का तू ...

१५/१/१२

2 comments:

  1. Bahut khub...kahan se baat kahan le gaye....bahut hi sundar tulna hai.

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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.