Jan 19, 2012

ख्वाहिसें क्यूँ इतनी बेवफा होती हैं?

जिंदगी में एक ही चीज़ है जो कभी कम नहीं होती वो है ख्वाहिशें. ख्वाहिशें हमेशा बनी रहती हैं..बचपन से ले कर अंत तक.. बस बदलती है तों उसकी रूप..कभी कम तों कभी ज्यादा पार हमेशा ख्वाहिशें हमारे संग रहती है, बस बदलता है तों उनका रंग. इन्ही रंग बदलती ख्वाहिशों के नाम एक रचना... एक कोशिश अपने ख्वाहिशों को शब्दों मैं ढालने की...

ख्वाहिसें क्यूँ इतनी बेवफा होती हैं?
आज एक, कल एक
और अगले पल
एक नयी होती हैं|

इस स्वार्थ सी दुनिया में
क्यूँ वो अंतहिन होती हैं?
दामन आज किसी का
और कल किसी एक का
थाम लेती हैं?
क्यूँ फिसलती हैं ख्वाहिशे?
क्यूँ बेवफा हो जाती हैं,
ख्वाहिसे, क्यूँ इतनी बेवफ़ा होती हैं?

सोचता हूँ, तलाशता हूँ
कोई तो हों एक वफ़ा सी,
थाम कर मेरे दामन को,
अंत काल तक हों मेरे साथ

तलाशता रहा इक
वफ़ा ख्वाहिश को
अनंत दिशाओं में,
तलाशता रहा,
अंतहिन सितारों में

मिली हमे!!!!
हर तरफ थी ख्वाहिशों की अम्बार
कहीं हमारी ही बेवाफएं थी
तो कहीं किसी और की बेवफाईयों की
पर कोई न थी, जो वफ़ा सी थी ..
सोचता रहा फिर भी मैं,
ख्वाहिशे क्यूँ बेवफा होती है?

उदास हो ,,,,
लौट पडे हम, ना पा कर कहीं,
इक भी इक भी वफ़ा ख्वाहिश को.

पर अचानक मिली वो
उदास अंधेरे से
एक कोने मैं जिसे कभी
हमने न छूआ था,
न कभी गले लिया था
हमने कभी टटोला था

मुड कर जब देखा हमने
रेत पर
हमारी हर पगचिन्हों पर
एक और स्याह सी छाप थी
शायद यही मेरे साथ थी
शायद बेवफा तो मैं था
वफ़ा तो यह ख्वाब थी
जो हर पल मेरे साथ थी

सोचा, यही तो वो वफ़ा ख्वाहिश है
जो गले हमे लगाएगी
मोहब्बत वह मुझ से इतना पाएगी,
छाणभंगुर सी ज़िन्दगी की
बुझने के बाद भी साथ
यही नन्ही ख्वाहिश दे जायेगी...

ख्वाहिश भी ऐसी..
ज़िन्दगी की विदाई पर
मुस्कुराते हमारी विदा की...
छोड़ कर हम कई
स्वार्थ ख्वाहिशों को ,बेवफाओं को,
जो चल न सके थे मेरे साथ.

जो छोड़ आये थे
कहीं मेरा साथ,
चल पडे थे,
अपनी स्वार्थी ख्वाहिसों के साथ

छोड़ जाउंगा उन रिश्ते नातों को
छलक आएगी तब, उनकी आँखों से
उनकी अधूरे  स्वार्थ...

निकल पड़ेंगे जब
हम अपनी विदाई पर,
न चाहेंगे, अंतहीन बनावटी उदासी,
क्युंकी मुस्कराहट की दामन को
हमने कहीं न छोड़ा था

साथ तो उन्होंने, हमारा छोड़ा था
कभी अर्थ,
तो कभी स्वार्थ
तो कभी माया का,
थाम  दामन उन्होंने
हमे उदास छोड़ा था

वफ़ा सी ख्वाहिश भी ऐसी..
अंत होगी जब ये काया
लिपटी होगी स्वेत सी चादर में,
नग्न इस शरीर को
मामूली लकड़िया दहका उठेंगी.

क्यूँ करू ख्वाहिश
चन्दन में दहकने की
जब ज़िन्दगी ही
क्यूँ फिर अंत पड़ाव पे
भीनि सी महकने की?

न रुकेंगे हम एक पल भी
इस स्वार्थ सी दुनिया मैं
न रोक पाएयेंगे कोई हमे
दिवसों की आड़ मैं
अंत क्रिया की छाव मैं
निकल पड़ेंगे हम, विदा लेंगे हम

कर सके कोई 'गर,
वफ़ा इस ख्वाहिश को
बेजान सी अस्थियों की राख को,
जल समाध दे आना वहीँ जहाँ
बाबा को छोड़ हम आये थे
वहीँ बस वहीँ छोड़ आना

कई ख्वाहिशों को छोड़
इंतज़ार मैं हैं मेरे बाबा
चले जवुंगा साथ ले इस शरारती
उदास ख्वाहिश को
एक बार फिर
थाम उन्ही उँगलियों को
बहुत दूर

कही दूर
बहुत दूर बहुत दूर ......

सोचता हूँ
यही तो
ख्वाहिश है
जो हर वक़्त
मेरे साथ है

यही तो एक ख्वाहिश है
जो हर वक़्त मेरे साथ है................


1 comment:

  1. ख्वाहिशें अनन्त हैं,कोमल अभिव्यक्ति।

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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
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