Aug 8, 2011

तुम बिन ............

रमजान के महीने  
सुबह भी रोजें की फांके सी हुई
आँखें खुली
नज़रें घूमी
बिस्तर की सलवटों को ढूँढा
सलवटें नदारद
और चादर वीरान.
तकिये के गिलाफ़
के तले छिपे
ख्वाब  भी गायब  ....
कमरे मैं फैली
खुसबू तेरे तन की
हवाओं मैं धूमिल धूमिल
कहाँ हो तुम?

निशा के गोद से
छुपा कर तुम्हे
बाँहों मैं ले हम
ख्वाबो मैं सजा
सलवटों  को संग  ले
तकीए के गिलाफों तले
सजा कर
सारी रात
हम संग थे
तों
कहाँ गयी तुम?
क्यूँ नहीं हो संग?
कहाँ हो तुम??

अधीर हो उठा क्यूँ ?
आवेग मैं क्यूँ हैं
ये मन ?
आ जावो तुम अभी
ना देर कर
रमजान  के महीने मैं
बिन तुम
सुबह रोज़े सी
ना हो जाए..
आ जावो अब कहीं जिंदगी मेरी
फांके मैं ना हो जाए
तुम बिन ............
ना पा
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खत बन कर जब ये एहसास उनके पास गए तों शब्दों ने ऐसा शमां बंधा

 ठीक वैसे ही सब
वीरान यहाँ भी है
लंबी सी चुभती जलती रात
अब यहाँ भी है
होठों में अनकही कईं बातें
यहाँ भी है
नींद में तकिये के साथ
अब भी कोई कहीं हैं
जैसे सिलवटें वहाँ गायब हैं
हाल अब कुछ यहाँ भी
वैसे ही हैं
आ जावो तुम अभी
ना देर कर और अभी
रमजान के महीने मैं
बिन तुम
हर सुबह रोज़े सा
फांके सा ना हो जाए..

आ जावो अब कहीं
जिंदगी मेरी
फांके मैं ना हो जाए
तुम बिन ............

सुन कर पुकार यूँ
तुम्हारी बेचैन हो उठी हूँ.......
तुम्हारी बेचैन हो उठी हूँ.......

 

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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.