Jul 9, 2011

सिर्फ एक दिन ......

बिन टन टनाहट जगना
आँख खुलते चाय
रुकी हुई ट्रेडमील
कवितावों की न्यूज़पेपर
बिन ट्राफिक के रास्ते
बिन टाइम का ऑफिस
मुस्कुराता बॉस
तारीफें करता ग्राहक
आज्ञाकारी टीम
मनपसंद टीफीन
टाइम पर घर  निकल  पाना  
मुस्कुराती सजी बीवी
टीवी से दूर, पढता बेटा
बिन दखल के स्व-पल
तेज आवाज़ में गाते जगजीत
मनपसंद डिनर
सेवईयों की दावत
बिन टीवी के आवाज़ की नींद
ख्वाबमैं महबूबा zin

सारे के सारे 
एक दिन के लिए भी क्यू ना होता है?
लंबी  सी इस जिंदगी में
सिर्फ एक दिन सब कुछ
अपने मन का सब कुछ
क्यूँ नहीं हो पता  है
सिर्फ़ एक दिन....  

पूछा तों आशु बोल उठे
ये तों बस जीवन के
अंतिम पड़ाव मैं ही हो पाता है..
सुन कर हम मुस्कुरा उठे...
.और कहे......
अरे पगले, अंतिम पड़ाव मैं भी
सब कुछ कहाँ अपना सा होता है.

अंतिम दिन भी,
घडियाली आँसू रोते लोग
टूटती चुडिया
पूछती मांग
आग के लिए मुहमाँगा मोल
मांगता चांडाल
चन्द पैसे के लिए
किचकिच करते परिवार
पूरी ना जल पाने पर
बांस से सर फोडते लोग...
बंद होती लोटे मैं
आजाद शरीर की राख...
कहाँ उसदिन भी  आशु बाबु
सब कुछ अपना सा होता है  

पेशोपेश हमे पाकर
चौपाल से गुज़रती जिंदगी रुकी
और रुक कर हंस पड़ी...
हंसी रुकी,  तों कह उठी..
ये सब तों मेरे बनाये जिंदगी की दाल मैं
सुख दुख के तडके हैं
गर तडका ना हो तों
ये राहें बेस्वाद नहीं होती ??
सोचो कितनी बेरुखी होती गर
ये राहें तुम्हारी इच्छावों की होती...
कह कर निकल पड़ी...
कितनी सच थी उसकी दलील
शांत हवा की झोंका भेंट कर जिंदगी
हमे समझा गयी जीवन के मोल....

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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.